धुन्दला से गए हैं यूँ गुजरते वक़्त के साथ
तुम्हारा चेहरा , साँसों की महक और हंसी की खिलखिलाहट।
ऐसा सोच कर मैं
बेफ़िक्र जी रहा होता हूँ कि अचानक
किसी एक दिन
उठ जाता है एक सैलाब
और सावन की पहली बारिश के जैसी
अंधेड़ हवाओं के साथ शरीर के भीतर तक पहुँचती हुई
हर एक नस , हर रग को कुरेद कर
हो जाती हैं आज़ाद वो यादें तुम्हारी।
फिर यादों के पंछी
किसी तड़पते चमगादड़ के जैसे
मन मस्तिष्क की गहराहियों में घुसकर
यूँ सताते हैं, इस तरह रुलाते हैं
कि तड़प उठता है ये मन।
कुरेदने लगती हैं इसको
वो यादें तुम्हारी
घूमता है वक़्त का पहिया
और होती हो तुम, और मैं,
इस समाज से परे
इस जहाँ से दूर।
और तब
वर्तमान के अहसास के तमाचे की झनझनाहट
समझाती है मुझे
कि धुन्दला से गए हैं यूँ गुजरते वक़्त के साथ
तुम्हारा चेहरा , साँसों की महक और हंसी की खिलखिलाहट।।
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