Saturday, October 2, 2010

खादी का बस्ता

ये सोच के चलता हूँ कि चलते रहना है,
कठपुतलियों कि अठखेलियों में,
ठहाकों का मजा लेना है |

घिर कर खिलौनों से, बचपने में खो जाना है,
बस रात-दिन के फेर में,सोच-समझ से परे,
स्वचलित एक दिन हो जाना है |

ये कौन सा पड़ाव है
जो ना कभी गुरु जी ने पढाया था,
किस और चल पड़ा हूँ मैं
दादा जी ने कभी ये रास्ता तो ना दिखाया था |

क्या मैं उलझा हूँ इस मन कि उलझन में?
या फिर मेरी बेखयाली कि दुनिया का
ये भी एक बहिष्कृत ख़याल है?

या है ये वैसा ही सवाल,
जिसके जैसे बहुत सारे,
ठूंस कर भरे हैं
मेरे सिरहाने रखे,
 खादी के बसते में|

हर संध्या इन सवालों के, जवाब लिखा करता हूँ,
हर रात इन पहेलियों में उलझा,
ख़्वाबों में सुलझाया करता हूँ|

हर भोर सवालों का बस्ता, सिरहाने छोड़ जाता हूँ,
कूद जाता हूँ दुनिया के सागर में,
चंद नए सवाल समेट लाता हूँ|

और मेरे सिरहाने का बस्ता, बस यूँ भरता ही जाता है,
हर रात जो लगती है चौपाल,
एक नया सवाल गर्माता है|

घट जाता है निद्रा का पहरा,
अंतर्द्वंद बढ़ता ही जाता है||

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